
पनवाड़ी की दुकान
आठ नंबर के इस पनवाड़ी की दुकान को मैं पिछले पाँच साल से देख रही हूँ। इस दुकान के अगल बगल में काफ़ी दुकानें है। इस दुकान से परचून और दूध की दुकान सटी हुई है। पान के खोखे को तरीके से सजा रखा है जैसे सामने मसालों के डिब्बे और खोखे के बाहर की तरफ़ कोने में पान के पत्तों की टोकरी जो गीली बोरी से ढकी हुई रहती है। दूसरी तरफ़ खुद के बैठने की जगह बना रखी है।
मैं जब भी उस दुकान के पास से गुजरती तो उसकी खुशबू से मेरे पैर वहीं रूक जाते हैं। मेरा मन मीठा पान खाने का करता है क्योंकि बचपन में पापा मुझे इस दुकान पर मीठा पान खिलाने लाया करते थे। मैं यह सब बातें सोच ही रही थी कि पापा की आवाज़ मेरे कानों में पड़ी। वो बोले आज तो मीठा पान खाने का मन कर रहा है। ये सुनकर मैं बहुत खुश हुई और बोली मेरा भी मन कर रहा है मीठा पान खाने का। मेरे अब्बू ने जल्दी से पैसे निकाल कर दिए और कहा चार पान लेकर आओ। मैं मन ही मन खुश हो रही थी।
पान की स्मैल कितनी अच्छी लगती है। काफी समय तक मुंह में ठंडा रहता है। जैसे ही मैं परचून की दुकान के पास पहुँची वैसे ही पान की सुंगध मेरी नाक में आने लगी। मैंने तेजी से कदम बढ़ाए तो देखा कि पनवाड़ी की दुकान पर पहले से ही काफ़ी ग्राहक खड़े हुए थे। मैं सोचने लगी अब तो मेरा नंबर देर से आएगा। जैसे ही मेरी नज़र दुकान वाले के हाथ पर गई तो वह बहुत जल्दी-जल्दी हाथ चला रहे थे। देखते ही देखते उन्होंने सारे ग्राहकों को निपटा दिया। अब मेरी बारी आई। उन्होंने कहा बिटिया कौन सा पान चाहिए? मैंने मुस्कुराते हुए कहा, चार मीठे पान बना दो। उन्होंने जल्दी से सारे मसाले निकाले और पान बनाना शुरू किया। मुझसे रूका नहीं गया और मैनंे उनसे कहा अंकल मुझे इन सारे मसालों के नाम भी साथ-साथ बताते जाओ। उन्होंने कहा ठीक है अभी कोई ग्राहक नहीं है इसलिए मैं तुम्हें बता देता हूँ। उन्होंने उस पान पर चाॅकलेटी कलर का कुछ लगाया और कहा ई मट्टई कलर का कत्था है। फिर उन्होंने पान पर अलग-अलग तरह के मसाले रखे जैसे इलायची, सौंफ, मिश्री, पिप्लीमेंट, गुलूकंद आदि। जल्दी से उस पान को बंद करके काग़ज़ में लपेट कर मुझे दे दिया। इसी तरह तीन बार और पान बना कर मुझे दे दिया। मैंने उनको पैसे दिए और खुश होकर घर आ गई।
पान मैंने पापा को दे दिए। उन्होंने सबको पान बाँट दिए। मैंने मजे से पान खाया और कहा पापा रोज़ मीठा पान खाया करेंगे। पापा ने कहा नहीं इसे रोज़ नहीं खाते क्योंकि इसमें मसालों के साथ-साथ सुपारी भी होती है जो मुँह को काट देती है और चूना मुँह को खराब कर देता है इसलिए कभी-कभार ही खाना चाहिए।
टेलर की दुकान
मोहल्ले के बहुत से लोग उस ब्यूटी टेलर के पास सूट सिलवाते है। ऐसा मेरी पड़ोस वाली सादिया ने मेरी अम्मी को बताया और कहा कि वो सिलाई भी ज़्यादा नहीं लेते। पिछले दस साल में उनका सूट की सिलाई में कोई इज़ाफ़ा नहीं हुआ। अम्मी कहने लगी कितने दिनों से मैं सिलाई वाले को ढूंढ़ रही थी, शुक्र है सिलाई वाली मिल गई। चल अब कल ही चलेंगे सूट सिलवाने। मैंने कहा मम्मी एक सूट मैं भी सिलवाऊँगी।
दूसरे दिन हम उस दुकान पर गए। जब मैंने उस दुकान को देखा तो वो एक बहुत बड़ा कमरा था लेकिन उस दुकान में इतनी सारी चीज़ें थीं जिसकी वजह से वो बहुत छोटा कमरा लग रहा था। दुकान के चारों कोनों में हैंगर पर टंगे कपड़े लटके हुए थे। दरवाज़े के पास एक काउंटर रखा हुआ था। उसके पास एक अंकल खड़े हुए कटिंग कर रहे थे। गेट के ऊपर एक बड़ा सा बोर्ड लगा हुआ था जिसके ऊपर ब्यूटी टेलर लिखा हुआ था। उसके अंदर से रंग उतरने की बू आ रही था शायद वह स्मैल बारिश की वजह से आ रही थी। बारिश की बूंदे जब उस बोर्ड पर पड़ती होगी तो रंग उतरने की स्मैल आती है। दुकान के अंदर चार बड़े-बड़े कतरनों से भरे कट्टे रखे हुए थे जिसके अंदर बंधे होने के बावजूद भी उन टेलर अंकल से पूछा कि ये कटटे तो बंधे है फिर भी इनमें से महक क्यों आ रही है। उन्होंने जवाब दिया ये भी बारिश की वजह से ही हुआ है। जगह-जगह से पानी टपकता रहता है। अब क्या करें, फैलाना तो पड़ेगा इन कट्टों को। मुझे तो ऐसा लग रहा थाजैसे उनकी पूरी दुकान में से ही स्मैल आ रही हो। वो लकड़ी का टेबल जिस पर मैंने अपना हाथ रखा था, वो गीला सा लग रहा था। वह टेबल मेरे कंधे तक आ रहा था। उसमें से गीली लकड़ी की स्मैल आ रही थी। जब मैंने उस स्मैल की तरफ़ गौर किया तो मेरी आंखें डगमगा गई। मैं तुंरत उस टेबल से दूर हो गई। अम्मी बोलीं क्या हुआ? मैंने कहा कुछ नहीं मम्मी। एक पल को तो ऐसा लगा कि इससे बेकार तो कोई स्मैल हो ही नहीं सकती। न जाने कैसे रहते हैं ये लोग इस माहौल में। अभी मैंने उस दुकान को पूरी तरह से नहीं देखा था। उस दुकान को पूरा देखने के लिए मैंने नज़रें उस मशीन पर डाली जिस पर टेलर कपड़े सिल रहे थे। मैंने देखा कि वह थोड़ा तेल उस मशीन पर गिर गया जिसमें से हल्की सी सुगंध उड़ रही थी जो बाकी गंधो से ठीक थी। मैं सोचने लगी शायद इस स्मैल को मुझ पर रहम आ गया इसलिए यह ज़्यादा महक नहीं रही। यह सोच कर मैं हंसने लगी। अम्मी ने सूट का नाप दिया और हम घर की ओर चल दिए।
मिठाई की दुकान
सुबह नींद से जागी तो उठते ही कानों में कढ़ाई, पलटे की टन-टन, धड़ धड़ की आवाज़ आने लगी। मैं उठ कर बैठ तो गई थी पर कढ़ाई, पलटे के शोर से मेरे कान खड़े हो गए। मुझे लगा मम्मी किचन में बर्तन मांज रही है। मैं दोबारा लेटना चाह रही थी इसलिए मम्मी से कहा, मम्मी थोड़ा धीरे कर लो न मुझे सोना है।’ किचन से मम्मी की आवाज़ आई, उठ जा अब। सामान तो ला दे।’ मैं ध्यान ही नहीं दे पाई कि मम्मी ने क्या कहा। दोबारा मेरी आँखें लग गई। कुछ ही देर बाद किचन की गरमाहट मेरे कमरे तक आ गई। पंखे की ठंडी हवा गर्म हवा में बदल गई थी। माथे और नाक पर पसीना आया और फिर बदन तिलमिलाने लगा इसलिए मेरी आँखें खुली। कच्ची नींद में ही मैंने हाथ बढ़ा कर बिस्तर के नीचे से अपना रूमाल निकाला और पसीना पोंछ लिया। अब मेरी नाक में कच्चे तेल की कड़वी गंध आने लगी थी। अब तो मैं उठ ही गई। बिस्तर से उतरते हुए आँखें मली। देखा तो घर में सफेद-सफेद धुंआ सा जम गया था। मैं तुंरत उठ कर बाहर गइ। नल खोल कर मुँह-हाथ धोया और मूक सी बन कर दरवाज़े के सामने बाहर ही खड़ी हो गई। तभी मेरे कानों में चर-चररर की आवाज़ आई मानो कोई कुछ तल रहा हो। मैं तुंरत लपक कर मम्मी के पास रसोई घर में जाने के लिए दरवाजे तक पहुँची ही थी कि नाक में एक मीठी सी, करारी सी महक आई।
तुरंत अंदर गई तो देखा मम्मी तो गरम-गरम गुजिया तल रही थी। मैंने अपने काम में लीन मम्मी से कहा, मम्मी आपने तो कहा था कि वो बनाओगे। मम्मी खिसियाते हुए बोली ये तो नाश्ते के लिए बन रही है, वो शाम को बनाऊँगी। याद आया, जा जल्दी से सामान ले आ। चीनी भी खत्म हो गई है। बेसन है ही नहीं और हाँ आते समय मैदा भी लेती आना। मैंने बाहर निकलते हुए तेज़ धूप को देख कर मम्मी से कहा शाम को मंगा लेना। मम्मी बोलीं बाद में मुझे याद नहीं रहेगा तू भी टयूशन जाएगी फिर मैं भूल जाऊँगी। मैंने तुंरत मम्मी से पैसे लिए और सामान लेने चली गई। अपनी गली पार की ही थी कि देखा सामने रोड पर बाज़ार लग गया था। आज मंगलवार जो था। अब क्या 9 नंबर जाने के लिए उस भीड़ से ही निकलना पड़ेगा। सब से बच-बच कर भीड़ से निकलने लगी। गाड़ियों के हाॅर्न लगातार पीं पीं कर रहे थे। लोगों की भीड़ में तरह-तरह की आवाज़ें कानों में गूंज रही थी। जैसे अरे थोड़ा देख के। अरे थोड़ा पीछे तो हो जाओ। अरे रूक जाओ। टन-टन-टन। गरम-गरम भठूरे देना भैया। कितना सुंदर सूट है। इन्हीं सब आवाज़ों के बीच से गुजरती हुई मैं नौ नंबर पहुँच गई।
बंसल अंकल की दुकान से पहले अभिचन्द अंकल की दुकान पड़ गई। दूर से ही दुकान पर ढेरों लडडू, बर्फी, रसगुल्ले रखे नज़र आ रहे थे। वहाँ से गुजर ही रही थी कि मेरी नाक में एक गरम भभका सा महसूस हुआ। एक मीठी, ताजी महक मेरी नाक में चढ़ गई। मेरा चेहरा खिल गया। नज़रें दुकान पर पड़ ही गई। देखा तो अंकल गरम-गरम जलेबी को चाशनी से निकाल रहे थे। यही तो मम्मी बनाने वाली थी। दुकान के आसपास काफ़ी भीड़ लगी थी।
कोई कह रहा था पहले मुझे दे दो, पहले मुझे। मुझे एक पाव देना। भैया थोड़ा जल्दी कर दो। दुकानदार ने कहा मशीन थोड़े है त्यौहार का समय है, थोड़ा टाइम तो लगता ही है। पास खड़ी लड़कियाँ बोलीं अरे अंकल गर्मी लग रही है जल्दी दे दो। तभी कानों में एक आवाज़ पड़ती है देखो तो आपका मुँह कैसा लग रहा है, कसम से जी मचल गया है। भैया जी पता नहीं कैसे काम करते है। क्या करे जी, ये रोजी रोटी है। तभी दो बच्चे दूर खड़े एक-दूसरे से बोले अंकल के तो कपड़ों पर तेल लगा है। अंकल को कितना पसीना आ रहा है। कोने में खड़े छोटे-छोटे बच्चों की टोली ठिठोली करते हुए बोली अंकल से बदबू आ रही है। तब अंकल ने उन्हें दुत्कार कर दूर भगाया। बच्चे हँसते हुए चले गए। मुझे भी हँसी आ गई। मैं उन जलेबियों को निहारते हुए आगे बढ़ गई।
जूतों की दुकान
मासूम
स्कूल से आ रही थी तो मेरा एक जूता रास्ते में टूट गया। मैं सोचने लगी शुक्र है कि घर आने ही वाला है, नहीं तो घर कैसे जाती। जैसे-तैसे करके मैं घर पहुँच गई। घर आकर मम्मी को बताया। मम्मी ने कहा शाम को नया जूता ले आएँगे। मैं खाना खा कर लेट गई और अपने नए जूतों के बारे में सोचने लगी। कुछ देर बाद मम्मी ने मुझे आवाज़ लगाई और कहा चल जूते लेने चले। मम्मी ने जल्दी से अपना बटुआ लिया और मेरा हाथ पकड़ कर नौ नंबर की तरफ़ चल पड़ी। खत्तवाल की दुकान के साइड में खुली एक नई जूतों की दुकान पर आकर रूक गई। मैंने उनसे कहा इसी दुकान में चलो मम्मी। मम्मी ने दुकान को ऊपर से नीचे देखा।
जब हम दुकान के अंदर जाने वाले थे तभी मेरी नाक में पाॅलिश की तेज़ स्मैल आने लगी। मैं समझ नहीं पा रही थी कि ये किस चीज़ की महक है। मम्मी दुकानदार से जूता दिखाने को कह रही थी। लेकिन मैं उनकी पच्चीस गज की नई दुकान को ऊपर से नीचे देख रही थी। दुकान पूरी नई थी अचानक मेरी नज़र दुकान की दीवारों पर पड़ी तो देखा कि इस पर तो एकदम नई सफेदी थी जिस पर अभी पेंट भी नहीं था। उनकी सफेदी से चाॅक जैसी स्मैल आ रही थी जो मुझे एक बार को अच्छी लगी लेकिन दीवार के ज़्यादा पास जाने पर वो मेरे दिमाग़ में चढ़ जाती। तब मैं उससे दूर हो जाती।
मैं मम्मी के पास जाकर खड़ी हो गई। जैसे ही अंकल ने जूतों का नया डिब्बा खोला तो उसमें से बड़ी कड़क सी स्मैल आई। मैं एकदम दूर हो गई पर वो गंद फिर भी मुझ तक आ रही थी। सोफे पर कई लोग/ग्राहक बैठे थे। वह अपने जूतों को बदल रहे थे इसलिए उनके मोजों से बड़ी खट्टी-खट्टी सी स्मैल आ रही थी। मेरा मन दुकान से बाहर जाने को कर रहा था। मम्मी दुकानदार से मोल भाव कर
रही थी। मैंने उनसे कहा चलो मम्मी हो गया। मम्मी ने ढाई सौ के जूते खरीदे। मैं उस दुकान के अंदर की स्मैल से बाहर निकलना चाह रही थी इसलिए मम्मी से पहले बाहर निकल गई।
स्कूल में गंध
आज सुबह जब स्कूल के लिए निकली तो मौसम की तरफ़ नज़र पड़ी। मौसम को देखकर ऐसा लगा कि आज तेज़ बारिश आने वाली है लेकिन तेज़्ा हवाएँ भी चल रही है। मौसम बड़ा सुहाना सा हो रहा है। धूप भी नहीं है। शायद बारिश आ सकती है। ये सब छोड़ो मुस्कान के घर जाना है। वैसे भी वो लेट करती है। मैंने छत से कपड़े उतारे। लंच पैक किया और मुस्कान के घर के लिए निकल पड़ी। हवाएँ तेज़ हो चुकी थी। मैं उसके घर पहुँची तो देखा कि वो तो नीचे बैठी हवाओं का मज़ा ले रही है। मैंने दूर से ही उसे आवाज़ लगाई। वो मेरे पास आई। हम दोनों साथ में स्कूल के लिए निकल पड़े। रास्ते में बहुत धूल उड़ रही थी। मिट्टियों के चांटे से लग रहे थे, गालों पर। मुस्कान कहने लगी यार कितनी मिट्टी उड़ रही है यहाँ पर। ये सारी मिट्टी सीधे मुँह पर लग रही है। मेरी आँखें भी ढंग से नहीं खुल पा रही है। आगे का कुछ साफ़ दिखाई भी नहीं दे रहा है। मैंने दाँत दबाते हुए मुस्कान से कहा, तू स्कूल चल अभी कुछ मत बोल वरना मिट्टी मुँह में चली जाएगी।
जैसे-तैसे करके मैं और मुस्कान स्कूल पहुँच गए। हम दोनों अपनी-अपनी क्लास में पहुँच गए। मेरी क्लास में कुल दस बच्चे ही आए थे। एक पीरियड भी निकल गया लेकिन टीचर नहीं आईं। अभी-अभी उनकी जगह वो बोरिंग सी गणित की टीचर आई है। उन्होंने भी बच्चों की संख्या देख कर कहा कि आज बच्चे बहुत कम आए हैं। इन हवाओं और बारिश की वजह से नहीं आए होंगे बच्चे। अच्छा छोड़ो, आप सभी बच्चे हैड डाउन करके बैठ जाओ। मैं भी अपना काम कंपलीट कर लेती हूँ। हम सभी बच्चों ने हैड डाउन कर लिया। हैड डाउन करते ही मुझे नींद आने लगी। अचानक न जाने कहाँ से बहुत गंदी बदबू आने लगी। टीचर ने कहा ये बदबू कहाँ से आ रही है? हमने कहा पता नहीं मैम।
टीचर क्लास से बाहर निकली। बाहर से बहुत शोर आ रहा था। टीचर बोली सब बच्चे मुँह पर हाथ रख कर बाहर आ जाएँ। टीचर ने अपने मुँह पर हाथ रख लिया। हम सबने भी अपने मुँह पर हाथ रख लिया। अब हम सारे बच्चे लाइन से बाहर आ गए।
घोबीघाट
सोमा
हमेशा की तरह मैं घोबी घाट से गुजर कर गई। वहाँ मैंने कुछ ऐसी चीज़ें देखी जो मैंने कभी नहीं देखी थी जैसे मशीनें जिस से सारा कारोबार चल रहा था। वे मशीनें कितनी बड़ी-बड़ी थी। वहाँ कितने सारे कपड़ों की सफ़ाई की जा रही थी जिनका गंदा पानी एक गड्ढे से नाले तक जा रहा था। जिस पानी की बास मेरी नाक तक पहुँच रही थी। कुछ ऐसा जिसे मैं समझ नहीं पा रही थी। मैं वहाँ से चली गई। अगले दिन पापा खाना खाने के लिए बैठे थे, मेरे हाथों से चटनी का बर्तन जा गिरा पापा के पास। पापा के कपड़े पूरी तरह गंदे हो गए। उन्होंने मुझे बहुत डांटा और कहा जाओ इसे धोबीघाट में डाल कर आओ, जिससे ये पूरी साफ़ हो जाएगी। मैं फिर उस जगह गई जहाँ से वो गंदा पानी निकल रहा था। मुझे तो वहाँ जाना पसंद भी नहीं था पर पापा की वजह से जाना पड़ा। मैं उस धोबीघाट के अंदर पहुँची तो मुझे एक ऐसी बास आई जैसे कुछ जल रहा था। अंदर जाते हुए मैंने देखा कि इतनी सारी मशीन एक सीधी लाइन में लगी हुई थी जिसमें से बहुत सारा गंदा पानी निकल रहा था जो कुछ ऐसे रंग का था जिसे देख कर ऐसा लग रहा था कि हमने पानी में चूरन मिलाया हो पर नहीं वो तो एक पानी था।
वहाँ इतनी बड़ी-बड़ी होदियाँ बनी हैं जिसमें से बहुत सारा पानी निकल रहा था और इतने बड़े-बड़े पाइप जिनका कनेक्शन उन मशीनों और होदियों से है। वहाँ से निकलना और खड़ा होना भी मुश्किल है क्योंकि वहाँ मशीनों का काफी धुंआ है। ये धुंआ हमें धीरे-धीरे हमारे शरीर में घुसता है जिससे हम बीमार हो जाते है। मशीनों की गर्माहट, कैमिकल की गंद और गंदा पानी जो नाले में निकलता है। वो कूड़ा पानी हमें हानि पहुँचाता है। वो लोग ही इसको महसूस कर रहे थे जो उस धोबीघाट में काम कर रहे हैं। वो गंद उन्हें सता और परेशान कर रही थी पर वे कुछ नहीं कर सकते थे। मैं म नही मन सोच रही थी कि मुझे कुछ नुकसान न हो, अगर मुझे कुछ हो जाएगा तो मेरे परिवार वालों को कौन संभालेगा। एक तो वे लोग इस बरसात के मौसम से परेशान हो जाते हैं क्योंकि जब भी बारिश आती है तब ऐसी ललकार के जाती है जैसे उस धोबीघाट को बर्बाद करके जाएगी। वहाँ के नाले भर जाते है जिसका पानी सड़कों पर फैल जाता है। साथ ही कीचड़ भी हो जाता है। उस रोड से लोगों का निकलना मुश्किल था। बारिश के पानी में धोबी घाट का पानी, कूड़ा और चूरन जो एक ज़हर जैसा बन गया, वो लोगों के पैरों पर असर करने लगा। पैरों पर बड़े-बड़े फोड़े हो गए। गड्ढों में पानी जमा होने से मच्छर पनपने लगे।
कबाड़ी की दुकान
सात नंबर रोड जिसे भौरी चैक भी कहते है। भौरी नाम इसलिए वहाँ रहने वालों ने रखा क्योंकि रोड़ के शुरूआत में ही भौरी का एक पेड़ के नीचे, झोंपड़ी में उनका ठीया है जहाँ पर वो गाय-भैंसों का मोल भाव करते हैं। इस रोड के दोनों तरफ़ कबाड़ी की दुकानें है उसके बाद घर शुरू होते हैं। उनमें से बायें तरफ़ कबाड़ का बड़ा सा गोदाम है जिस पर एक गेट लगा हुआ है। वो गेट आधा खुला, आधा बंद रहता है। पूरा वो तभी खुलता है जब माल ट्रकों में आता है। गेट के अंदर जाने पर दायें हाथ पर एक छोटी सी बिना खिड़की के दुकान बनी हुई है जहाँ मालिक बैठता है। उसके पास ही एक चारपाई है जिस पर तिजोरी है और ख़ाली जगह पर माल के बोरे भर कर रखे हुए हैं। कुछ माल बिखरा हुआ भी पड़ा है। बीच की जगह पर व्हाइट कलर की तिरपाल ऊँची करके बाँध रखी है जिसके नीचे माल भरे बोरे व्हाइट कलर के रखे हुए हैं। उन बोरों के बीच में तीन महिलायें बैठी हुई माल छाँट कर बोरों में भर रही ही।
बैठ कर माल छाँटना और खड़े होकर बोरों में भरना उनके चेहरे की थकावट को बयान कर रहा था। इन तीनों की उम्र तीस से पचास साल के बीच थी जिसमें से दो ने सूती धोती पहन रखी थी और एक ने सूट जो कभी-कभी आपस में बात कर रही थी। वहाँ के मालिक से जब बात की तो उन्होंने बताया यह दुकान यहाँ पर पाँच-छः साल से चल रही है। पहले यह खाली जगह थी। हमने कुछ साल तक घेरे रखा फिर सोचा क्यों न यहाँ काम शुरू किया जाए। शुरूआत में तो फेरी वाले कबाड़ी ही हमें माल बेच कर जाते थे। दो-तीन साल तक ऐसे ही चलता रहा। उसमें सारा दिन दुकान पर टिक कर बैठना पड़ता था और दुकान पर नज़र टिकाए रखनी पड़ती थी क्योंकि कभी माल देने वालों की भीड़ रहती थी तो कभी ख़ाली बैठना पड़ता था। इन सब हालातों से जूझते हुए अपने दोस्तों से सलाह-मशविरा किया और धीरे-धीरे कबाड़ी की थोक की दुकान चलाने की सोची जिससे ट्रकों में माल आए और छंटाई होकर यहाँ से जाए। यह काम मुश्किल तो था लेकिन रिस्क लेने की सोच ही ली।
शहर की गंध – नाला
आदित्य
पहाड़ी बस्ती के पास से बहता हुआ नाला जिसका रंग काला है। किनारों पर कूड़ा कचरा और ईंट-पत्थर है। हमारे सारे दोस्त उस जगह पर खेलते हैं। उनमें मेरा एक दोस्त पवन है जो उस जगह पर खेलता है। एक दिन पवन अपने दोस्तों के साथ खेल रहा था। खेलते-खेलते उसके पैर में चोट लग गई। उसके पैर से खून निकलने लगा। उसके जो दोस्त थे उसमें से एक लड़का उसकी चोट पर मिट्टी लगाने वाला था, मैंने उसे मना किया। वो नहीं माना। उसकी उसकी चोट पर मिटटी लगा दी। कुछ दिन बाद उसके पैर में घाव बनने लगा और उसका पैर दर्द करने लगा। उससे चला भी नहीं जा रहा था क्योंकि जिस जगह पर वो लोग खेल रहे थे उस जगह पर बहुत गंदगी थी। उस जगह की मिट्टी भी बहुत ज़्यादा गंदी है। जब वहाँ बहुत तेज़ हवा चलती है तब वो सारी मिटटी चेहरे पर लग जाती है।
एक हफ्ते बाद जब वो मुझे मिला तो उसका घाव भर चुका था। सारे दोस्त आशु से बोले कबड्डी खेलते हैं। उसने कहा ठीक है। आशु ने कहा पवन नहीं खेल रहा है। मैंने उसे कहा मुझे पता है उसके पैर में चोट लगी है।
जब हमने खेलना शुरू किया तो हमें पहले बदबू आई फिर खेलते-खेलते बदबू आनी बंद हो गई। हम सब फिर खेलने लगे। पांच मिनट बाद हमारे पास पवन धीरे-धीरे चल कर आया और कहने लगा मैं भी खेलना चाहता हूँ। हम सबने उसे घर जाकर आराम करने को कहा। उसने कहा मेरा भी मन है खेलने का। अगर मेरे पैर में घाव नहीं होता तो मैं भी तुम लोगों के साथ खेलता।
मैंने अपने दोस्त से कहा भाई इसे इसके घर छोड़ आ। वो लड़का पवन को उसके घर छोड़ आया। हमने भी खेलना बंद कर दिया। हमने सोचा इस जगह पर हमें नहीं खेलना चाहिए। कुछ दिनों बाद मैं और मेरे सारे दोस्त उस जगह पर सफ़ाई करनी शुरू कर दी। उस जगह की सफाई करते हुए सुबह से शाम हो गई। जब वो जगह साफ़ हो गई तब हम सारे दोस्त मिल कर नाचने लगे और कुछ दिनों बाद हमने आसपास बहुत सारे पेड़ लगाए। उन पेड़ों को पानी भी डालने लगे। आज उस जगह पर कोई बदबू नहीं आती। पवन की चोट भी ठीक हो गई।
बस अड्डा
नन्दिनी
घर से बाहर ही निकले थे कि मानो धूप ने जैसे जकड़ लिया है। पापा बैगों को हाथ में पकड़ते हुए बोले बच्चों धूप तेज़ है, मैंने ओला बुक की है। वो हमें आनंद विहार बस अड्डे तक पहुँचा देगी, वहाँ से हम बस में चलेंगे। पापा की बात सुन कर मम्मी बोलीं क्या! आपने ओला बुलाई है! इतने पैसे कहाँ से आए आपके पास! मम्मी की बात को काटते हुए पापा बोले श्रीमति जी आप फिक्र ना करें मैंने कहीं न कहीं से बंदोबस्त कर लिया है। अरे लो आ गई ओला। चलो-चलो जल्दी चलो।
ड्राइवर बाहर निकल कर आया और सामान डिग्गी में रख कर बोला आपका स्वागत है मेरी गाड़ी में। हम गाड़ी में बैठ गए। गाड़ी के शीशे बंद थे। ऐसे में एसी भी ऐसे चल रहा है जैसे कोई बैलगाड़ी। नहीं-नहीं जैसे कोई कछुआ। मेरा दम तो घुट रहा था। हाथों को एक-दूसरे के साथ जोड़ कर मैंने आँखें बंद कर ली। शीशा बंद होते हुए भी धूप अभी भी मुँह पर लग रही थी। मैंने बगल से अपना छोटा बैग लिया और उसमें से स्कार्फ़ निकाल कर मुँह पर ओढ़ लिया। अब ओला रूक गई। मैंने मम्मी से कहा क्या हम पहुँच गए। मम्मी तेज़ स्वर में बोलीं हाँ, हाँ पहुँच गए आनंद विहार। धूप को देखते हुए मेरा तो म नही नहीं कर रहा था गाड़ी से उतरने का पर क्या करती उतरना पड़ा। गाड़ी वाले ने हमें बस स्टैंड से पहले ही उतार दिया क्योंकि आगे पुलिसवाले खड़े थे। एक-एक बैग हाथों में लिए हम चल दिए। पापा कहने लगे रोज़ के मुताबिक आज यहाँ ज़्यादा भीड़ है। हम उस ज़ीने से चलेंगे क्योंकि लिफ़्ट में ज़्यादा भीड़ है। मेरी नज़रें लिफ्ट पर पड़ी। वहाँ भीड़ बहुत ज़्यादा थी। लोग बहुत धक्का-मुक्की कर रहे थे। हम ज़ीने तक पहुँ गए। मेरी नज़र ज़ीने के उस कोने पर पड़ी जो लाल-लाल सा हो रहा था और थूक से भरा था।
मम्मी ने एक हाथ से बैग सिर पर रखा और दूसरे हाथ से मेरा हाथ पकड़ लिया। मम्मी, लोगों से बच-बचाकर वहाँ से मुझे लेकर निकल रही थी। आगे भी पुल के किनारों पर बहुत सारा गंध पड़ा था कहीं चिप्स के पैकेट, कहीं ख़ाली पन्नी के गिलास, गुटके के लाल निशान का तो पूछो ही मत। वो तो जगह-जगह पर दिख रहे थे। वहीं कोने-कोने पर लोगों ने छोटी-छोटी सी दुकानें लगा रखी थी। अब हम वहाँ से निकले तो मम्मी ने ज़ीने के कूड़े-कचरे वाली जगह पर खड़ा कर दिया क्योंकि अभी पापा पीछे ही रह गए थे। उनके साथ छोटा भाई था। मैंने मुँह सिकोड़ते हुए कहा मम्मी इसी जगह पर क्यों खड़े हैं, कहीं और नहीं खड़े हो सकते क्या! मम्मी ने कहा, कोई खड़े ही नहीं होने देगा। भीड़ देख रही हो कितनी हो रही है यहाँ। कहीं और खड़े होकर तुम देख सकती हो कि तुम्हारे पापा और भाई आ रहे हैं या नहीं बताओ!
बहुत बदबू भी आ रही है। लोग कैसे यहाँ पटरी के ऊपर बाज़ार लगा लेते है। अब पापा आ चुके थे। हम उस भीड़-भाड़ वाले बाज़ार से निकलने लगे जिसके बाद बसें खड़ी थी। यहाँ चलना मुश्किल लग
रहा था, जगह इतनी छोटी, ऊपर से यह दुकानें – कुछ छोले भठरों की कुछ पानी वाले की तो कुछ अलग-अलग चीज़ों की। मैं नज़रें घुमाए सारी दुकानें देख रही थी जो कूड़े से सटी है अचानक ही मेरा पैर उस गड्ढे में चला गया जिसमें कीचड़ जैसा पानी था। मेरे पैर में मोच आ गई थी। मुझसे पैर उठाया भी नहीं जा रहा था। पापा ने हाथ पकड़ते हुए कहा सुनो, सुनो अभी थोड़ी हिम्मत करके यहाँ से निकलो, बाहर जाकर देखेंगे। लोग बहुत शोर मचा रहे थे। बाज़ार में खड़े वो दुकानदार जो चश्मा लो, खिलौने लो, कपड़े लो चिल्ला रहे थे। उनकी आवाज़ भी बहुत ज़ोर से कानों में गूंज रही थी। कुछ लोग सामान ले रहे थे तो कुछ उस भीड़ भरे माहौल से जल्द निकलना चाहते थे। कुछ औरतें सामानों के लिए लड़ रही थी तो कुछ उन्हें देख कर हँसते हुए वहाँ से निकल रही थी। वहाँ की जमीनें उबड़-खाबड़ थी, चलना भी मुश्किल था। मेरे सामने जा रही आंटी अचानक ही पीछे को हो गई। उनके पीछे होने पर मुझे धक्का लगा। मेरे पास आते ही उनके पसीने की गंध मेरी नाक में चली गई। हाय अल्लाह यह बोल कर मैंने उन्हें आगे सरका दिया। अब मेरी नज़रें उस बच्चे पर पड़ी जिसने चिप्स खा कर पन्नी वहीं उस जगह पर छोड़ दी। ऊपर से वो अंकल जो उस मूंगफली के छिलकों को यूं ही रास्ते पर फेंक रहे थे, उसके पीछे वो लड़का पानी पीकर वहीं उस बोतल को फेंक कर चलता बना इसलिए वहाँ पर जगह-जगह गंदगी फेली हुई है शायद किसी को ऐसा नहीं लग रहा कि वो कितनी गंदगी फैला रहे है। इन कूड़े के सड़ने की वजह से यहाँ कितनी गंध भरी आ रही है। शायद किसी को भी रोक टोक महसूस नहीं हो रही है। दुकान पर खड़े कुछ लोग खाने के बाद पत्तल, पन्नी कूड़ेदान की बजाए वहीं पर फेंक रहे थे। मेरे पैर का दर्द अब ज़्यादा बढ़ने लगा। हम जल्दी-जल्दी चलने लगे। अब हम उस भीड़-भड़क्का वाले भरे बाज़ार से बाहर निकल आए। छोटा भाई रोते-रोते कहने लगा पापा मम्मी मुझे चश्मा दिला दो प्लीज़-प्लीज़। मम्मी ने उसे एक ज़ोरदार डांट लगाई और चिल्लाते हुए कहा चुप! एकदम चुप! अब तुम्हारे लिए क्या हम उस बाज़ार में फिर से जाएं। मम्मी को बैग देते हुए पापा बोले सुनिए जी, हम टिकट लेकर आते हैं, आप सब वहाँ कोने में जाकर खड़े हो जाइए। मम्मी और हम उस शौचालय के बग़ल में उस चोटी पर जाकर खड़े हो गए। शौचालय से आती वह गंध मेरी नाक से सीधा मेरे सिर में चढ़ रही थी। अयान मम्मी से कहने लगा मम्मी, मम्मी यहाँ बहुत बदबू आ रही है। उसने नाक बंद कर ली। मैंने भी अपनी नाक पर हाथ लगा दिया। मैं सोचने लगी कि यहाँ इतनी बस खड़ी है, इतनी छोटी सी जगह में, ऊपर से ये शौचालय खड़े होने की जगह ही नहीं है। मैं अंकल से देखने लगी जो चिल्ला-चिल्ला कर शायद अपने बच्चे को डाँट रहे थे। मुझे उनकी आवाज़ तो नहीं आ रही थी लेकिन ऐसा लग रहा था कि वह बहुत गुस्से में है। अब मैंने नज़रें दौड़ाई तो देखा कि उन छोले भठूरे वाले की दुकान पर बहुत भीड़ लगी थी जहाँ बहुत अच्छी खुशबू आ रही थी लेकिन शौचालय की गंध की वजह से वह खुशबू वहीं पास से आ रही थी पर वहाँ बहुत धुंआ भी उठ रहा था। बहुत भीड़ भड़क्का था वहाँ और उसी दुकान के कोने पर कूड़े का बड़ा सा ढेर भी था। यहाँ पर तो बहुत शोर-शराबा है। उस शोर शराबे में भी एक अजीब सी गंध जिसे मैं चाह कर भी नहीं जा रही थी। पापा अब टिकट लेकर आ चुके थे। हम टिकट हाथ में लिए वहाँ से निकल गए।
गाड़ियों की आवाज़ें क्या कम थी कि अब इन बस कंडक्टर की भी सवारियों को बुलाने की आने लगी।
जब गाड़ियां चलने के लिए शुरू हो रही थी तब सारी गंध और सारा धुंआ सवारियों के मुँह पर ही आ रहा था। उन गाड़ियों से निकल कर हम अपनी गाड़ियों तक पहुँचे और बस पर बैठ गए।
गंध
सर्दियों का समय था मैं आज पहली बार अम्मी-अब्बू के साथ सीमापुरी गई। बस से उतरते ही एक चिपचिपी हवा के साथ खुशबूदार महक का सामना किया। इधर-उधर नज़रें घूमाई तो देखा छप्पर से ढकी छत के नीचे बनी कच्ची मिट्टी की भट्टी पर रखी एक बड़ी सी कढ़ाई के सामने खड़ा वह आदमी जो उसमें तल रही जलेबियों को एक छन्नी से हिला-डुला रहा है जिस वजह से उसमें से जले हुए तेल की महक आ रही है। उसी भट्टी के पास रखा एक बड़ा सा डिब्बा जिसमें चाशनी रखी हुई है और उसके आसपास मक्खियां भिनभिना रही है जिन्हं देख कर लग रहा है कि वह चाश्नी में डूबी हुई है। तेल की महक और चाश्नी की खुशबू मिलकर एक शानदार महक बन कर चारों तरफ़ घूम रही है। आह क्या खुशबू है। खुशबू सूंघ ये लाइन मुँह से निकल ही गयी। उसी दुकान के सामने खड़े कुछ लोग जो शायद जलेबी बनने का इंतज़ार कर रहे हैं क्योंकि उन्हीं के बीच में खड़ा वो आदमी जो गुस्से में तीन चार बार बोल चुका है बन गयी क्या जलेबी! जल्दी करो भाई!
कुछ कदम आगे चली तो नमकीनदार महक नाक के साथ-साथ चेहरे पर भी महसूस हुई जिसने मेरे मीठे-मीठे मन को एक ही पल में नमकीन दार बना दिया। यहाँ पर भी कुछ वैसी ही दुकान थी बस वहाँ पर नमकपारे बन रहे हैं। पास में पड़ा एक बड़ा सा पलंग जिस पर एक बड़ा सा ढक्कन रखा हुआ है। एक आदमी जो उस पर रखे मैदे और सूजी के मिश्रण को काट कर नमकपारे का रूप दे रहा है जिसमें से सूजी-मैदे की खुशबू आ रही है। अब दूसरी तरफ़ मुड़ी तो एक सड़ी महक से टकराव हुआ जो मच्छियों और उनके खून की है। मच्छी ले लो, मच्छी… की आवाज़ के साथ-साथ चट-पट की आवाज़ भी आ रही है जो चप्पल की है। हम भी भीड़ के बीच से आगे की ओर जा रहे हैं। मच्छियों
की दुकान से इतनी खुशबू/बदबू आ रही है कि हाथ खुद ही नाक पर जा रहे हैं। मैं बार-बार थूकती और हाथ नाक पर रख कर बदबू को नाक में जाने से रोक रही हूँ लेकिन ये इतनी ठीट है कि मेरे न चाहते हुए भी नाक में घुसी आ रही है। औरों की तरह मैं भी वहाँ से जल्द निकलना चाहती हूँ। धक्का-मुक्की के कारण जब मेरी नज़र उन दुकानों पर पड़ती है जहाँ मछलियों को काट रहे हैं तो मछलियों की स्मेल मेरा दिल कच्चा हो जाता है और मुझे उल्टी होने जैसा हो जाता। कई बार जब उल्टी आने से पहले मैं हिल गयी तो अम्मी-अब्बू ने कहा क्या हुआ! मैं कुछ कह नहीं पाए। अपने कदमों को आगे बढ़ा लेती हूँ। जैसे-जैसे आगे बढ़ रहे हैं वैसे-वैसे बदबू कम होती जा रही है। अब वो मंजिल आ गयी है जहाँ हमें जाना है। वह घर गली के कोने में था। गली में जाते ही गड़-गड़ की आवाज़ कानों में सुनी तो नज़र उस तरफ़ मुड़ ही गयी जहाँ से आवाज़ आ रही है।
मुँह घुमाते ही चट-चट चांटों ने स्वागत किया। जब थोड़ा ग़ौर किया तो देखा एक मशीन के सामने बैठा वो आदमी जो शायद पेंटें सिल रहा है क्योंकि उस मशीन के दायें-बायें पेंटों का ढेर लगा हुआ है। पेंटों के ढेर से एक अजीब सी महक निकल रहा है जिसे सूंघने पर महसूस हो रहा है कि उस नीले रंग और कैमिकल के मिले द्रव्य से उसे रंग दिया गया है। पूरा कमरा पेंटों से निकलने वाली महक मशीन के तेल के साथ-साथ गड़गड़ाहट से भरा हुआ है तभी एक पीं… पीं.. की आवाज़ आयी। मैं अम्मी के पीछे आ गयी और चलने लगी। जब वो मेरे पास से निकली पैरों पर कुछ गरम-गरम महसूस हुआ। पीछे मुड़ कर देखा तो उसमें से निकलने वाला धुंआ मेरी आँखों में लगा जिस वजह से मेरी आँखों से आँसू निकलने लगे और बहुत देर तक खुजली भी होती रही। ऐसी मशीन लगभग सभी के घरों में रखी हुई थी शायद यहाँ के लोग इसी काम में माहिर है या यह कहें कि वो यही कारोबार करते हैं। गली में लोगों की आवाज़ कम और मशीनों की आवाज़ ज़्यादा आ रही है तभी कुछ गिरने की आवाज़ ने मेरा ध्यान अपनी ओर आकर्षित कर लिया तो देखा एक आदमी जिसके चेहरे के कुछ हिस्से पर तेल लगा हुआ है, वही कुछ हिस्से पर कालिख लगी हुई है जो नीचे झुक कर पोंचे से जमीन पर गिरी कुछ चीज़ उठा रहा है जिसकी महक तेल जैसी महसूस हो रही है। उस चीज़ की महक कुछ हद तक ज़मीन को छोड़ कर पोंछे में समा गयी है। जमीन को साफ़ करने के बाद उस आदमी ने पोंछा बाहर लाकर ज़ीने की ग्रिल में टांग दिया। उस पोंछे से आने वाली महक मेरी नाक को ढूंढ़ते हुए मेरी तरफ़ आ ही गयी। पोंछा कहीं-कहीं से काल पड़ रहा है जिसमें से गीली-गीली सी स्मैल आ रही है, जो त्वचा को भी गीला-गीला महसूस करा रही है। अब हम उस घर में पहुँच गए। हम जब पहली मंजिल पर पहुँचे तो मुझे कट-कट की एक आवाज़ आई। मैंने उस आवाज़ को अनसुना कर दिया और आगे बढ़ गयी।
इधर-उधर जहाँ भी नज़रें घूमाऊँ वही कारखाने ही कारखाने नज़र आ रहे है। कहीं बेकरी के कंधे लोहे के तो कहीं दरवाज़े के क्योंकि ठेलियों पर माल इधर-उधर ले जाया जा रहा है।
दिल्ली
रीतू
जब भी दिल्ली के गंध की बात की जाती है तो खिचड़ीपुर के लोग बातचीत के दौरान गाजीपुर कूड़ा पहाड़ी की ही चर्चा करते है। उनमें से ही एक सरोज जी का कहना है कि गाजीपुर कूड़ा पहाड़ी सबसे पहले काफ़ी छोटी थी। मेरे देखते ही देखते यह काफ़ी बड़ी हो गई क्योंकि यहाँ दिल्ली के आसपास का कूड़ा जमा होता है। इसी तरह यहाँ कूड़ा जमा होता गया और दिन-ब-दिन बढ़ता गया। वह रात जब तेज़ हवा सरासर चलने लगी थी। आँधी आने को हो रही थी। आसपास पड़े कूड़े ने अपनी रफ़्तार पकड़ ली थी। वह हवा में काॅलोनी के चारों और घूमने लगे थे। सबने हवा के रूख को देख कर अपने घरों के दरवाज़े, खिड़कियों को बंद कर लिया था। उनमें मैं भी शामिल थी। मैं भी अपने घर के खांचों में पुराने कपड़े घुसाने लगी थी। हवा धीरे-धीरे और तेज़ हो रही थी और लोगों की आवाज़ भी उतनी ही तेज़ हो रही थी। कोई कह रहा था अरे जल्दी बांधो, ओहहो खिड़की तो बंदर कर दो पहले। तभी सामने से एक अधेड़ उम्र की अम्मा पास आते हुए बोलीं, ‘अरे भैया उड़ गए मोये कपड़े, पकड़ लो बिटिया ज़रा! सबका इंतज़ाम हवा की सरसराहट के साथ-साथ होता चला जा रहा था। अब सब अपने-अपने घरों में जा घुसे थे और मैं भी।
खिड़की से बाहर झांका तो हवा में धूल के कणों से आसपास के घर धूंधला गए थे। मैं तुरंत खिड़की बंद कर अंदर को हो गई। हवा के तेज़-तेज़ झोंको की सर… सर… सरर… की आवाज़ कानों में लगातार पड़ रही थी। जिसका डर था वही हो गया था। आंधी की वजह से झोंपड़ियों के छप्पर, बाँस, बल्ली सब उजड़ से रहे थे जिनकी खड़-खड़ाहट मेरे कानों में काँटों की तरह चुभ रही थी।
एक बार फिर अपना चिंता भरा चेहरा लेकर ज़रा सा कपड़ा हटा कर खिड़की से झाँका तो देखा कई लोग तेज़ हवा में ही बाहर निकल आए थे। उनके बीच अफरा-तफरी सी मच रही थी। वे सब एक-दूसरे की सहायता करके कूड़ा खत्ते के सामने पड़े मलवे से बड़े-बड़े पत्थर उठा-उठा कर अपने घरों पर रख रहे थे धड़-धड़ा-धड़, फड़ फड़ापर काॅलोनी के बीच यही आवाज़ें छाई हुई थी। ऊपर से मेरे छत पर रखे बांस, चटाई भी लगातार हिल-डुल रहे थे जिनका अहसास मैं बखूबी ले रही थी। अब मैं बाहर का मौसम देख कर तुरंत चैकन्नी हो गई और घरों के बर्तन जगह-जगह लगाने लगी। ठीक वहीं जहाँ-जहाँ ये छत टपकती है, पानी गिरता था। मैं चिंता में पलंग पर शांत बैठ कर खड़े कानों से बाहर झांका तो देखा कि हमारी छोटी-छोटी सी गलियां पूरी कूड़े-कचरे से भर गई थी। जब नज़र कूड़े खत्ते पर गई तो लगा कि वह ही कूड़े को यहाँ धकेल रहा हो। देखते ही देखते बाहर अंधेरा सा छा गया। अब अचानक ही बारिश शुरू हो गई थी पर हवा रूक गई थी इसलिए कानों पर बादल की गड़गड़ाहट
ऐसे पड़ रही थी जैसे कोई पहाड़ ही टूट जाएगा। बारिश ने तो जैसे पूरी काॅलोनी को ही डूबो दिया हो।
कुछ देर बारिश होने पर गलियों के छोटे-बड़े गड्डे पानी से भर गए। सबके घरों के ऊपर की चद्दरों की किनारियों से पानी झरने की तरह बह रहा था। कच्ची पक्की मिट्टी के कुछ घर ऐसे लग रहे थे जैसे अभी टूट कर ही गिर जाएंगे। मिट्टी की महक दूर तक फैल रही थी। गली की मिट्टी ने कीचड़ का रूप ले लिया था। मेरा दरवाज़ा पार करके ही तो गली में जैसे नदी बह रही थी। कूड़ा करकट लगातार वहाँ जा रहा था, जिसकी झक लगातार मेरी खिड़की को पार कर मेरी नाक में जा रही थी इसलिए मैं बार-बार पीछे हो रही थी। ये सब देख कर मेरा मन बहुत दुखी सा हो रहा था क्योंकि सभी अंदर थे। बाहर देखने पर तूफ़ानी सी दुनिया नज़र आ रही थी।
वो भी एक रात थी जो बीत गई लेकिन दिन में भी बस्ती का बेहद बुरा हाल हो गया था जहाँ घरों के आगे लोग खाट बिछाकर बैठते हैं। वह जगह कीचड़ ने ले ली थी। मेरी तरह सबने ही अपने घरों के आगे कीचड़ में ईटें रख रखी थी ताकि पैर कीचड़ पर न पड़े।
दिन में सब लोग अपने-अपने घरों के आगे से कूड़ा हटाते नज़र आ रहे थे। देख कर तो ऐसा लग रहा था कि बाहर मार्केट भी अभी कोई नाश्ता पानी लेने नहीं गया था। कई औरतें अपनी कच्ची मिट्टी की दीवारों पर सीमेंट का पानी चढ़ा रही थी जिससे वह पक्की हो जाए। तेज़ धूप भी निकल आई। बस्ती में पड़ा कूड़ा काँच की तरह चमक रहा था। उन पर लगातार मक्खी-मच्छर भिनभिना रहे थे। मैं भी बाहर गई और सामने कूड़ा पहाड़ी पर नज़र डाली तो लगा कि ये पानी से तर पहाड़ हो गया है। लगता था अभी टूट कर गिर जाएगा। वहाँ से कूड़े की तेज़ सड़ी गंध आ रही थी जिसने पूरे माहौल को ही भर दिया था।
यह उन दिनों की ही बात है जब हम कूड़ा पहाड़ी गाजीपुर से थोड़ी ही दूर बसी बंगाली बस्ती में रहते थे। मैं तो यह सोचती हूँ कि कूड़ा पहाड़ी के पास बस्ती के लोग रहते हैं, जो काॅलोनियाँ बसी है उनका क्या हाल होगा।
आज भी बारिश होती है तो कूड़ा पहाड़ी की गंध एनएच24 तक तो आ ही जाती है।