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बीस साल पहले खिचड़ीपुर की बदबू व खुशबू तथा बाद की बदबू तथा खुशबू 

रीतू

पिचत्तर साल की मूर्तिदेवी को यहाँ, खिचड़ीपुर कालोनी में आए चालीस-पैंतालीस साल हो गए है। पहले वह मिंटो रोड की झुग्गियों में रहती थी। उनके सभी बच्चे वहीं पले बड़े है। वह कहती हैं कि वो दिन अभी भी याद है जब हमारा झुग्गी टूटने का नोटिस आया था। मैं नौ-नौ आंसू रोती थी। आसपास बड़ी अफरा-तफरी सी फैल गई थी। तब तो इंदिरा गाँधी का जमाना था इसलिए हर किसी के लिए ट्रक की सुविधा की गई थी ताकि हमारा सामान, हमारी जगह आराम से पहुँच जाए। भला अपनी जगह को छोड़ना इतना आसान होता है क्या? मेरा तो जन्म ही वहीं का है। जाते-जाते वह दिन याद आ रहे थे जब मैं छोटी सी, हर गली में कूदती-फिरती थी। वह पार्क, बगीचे उनके बड़े फल तोड़े। वाह! क्या खुशबू आती थी फूलांे से। मैं तो रोज़ पार्क जाया करती थी। जब घरों पर बुलडोजर फिर गए थे, आसपास मिट्टी भरा वातावरण हो गया था। उस धूल, मिटटी, कचरे के कारण पार्कों के पेड़ों की सुगंध हम तक पहुँच ही नहीं पा रही थी। बस नाक में धूल-मिटटी की वह चुभने वाली खुशबू ही पड़ रही थी। 

हमें खिचड़ीपुर में फेंक दिया। तब यह काॅलोनी बसी ही नहीं थी। हमारी जगह पूरी मिटटी के ऊपर थी। आसपास कुछ ही घर थे बाकी तो हमसे काफी दूर-दूर थे। रोज़ाना खेतों की कटाई चल रही थी। वहाँ से पत्तों की कड़वी सी खुशबू आती रहती थी। तब ये आठ नंबर का पार्क भी नहीं बना था। इसके चारों तरफ़ पानी ही पानी रहता था। पास से गुजरने पर गंदे पानी और काई की स्मैल आती थी। कुछ लोगों की तरह हम भी मिटटी हटा-हटा कर अपनी झुग्गी बनाने की तैयारी करते। दूर-दूर हैंडपंपों से पानी लाना पड़ता था। हमने बाहर ही एक पन्नियों का छप्पर डाल रखा था। तब बस वही हमारा घर था। वहीं हमारा सारा सामान रखा था। मेरे पति मजदूरी करते थे। उन्हें दो-ढाई सौ रूपए मिलते थे, उन्हीं रूपयों से झुग्गी का थोड़ा-थोड़ा सामान आता था। उस वक़्त मुझे मिट्टी के तेल से बहुत एलर्जी थी। उसकी स्मैल मेरे दिमाग़ में चढ़ती थी। पर तब सभी स्टोव का इस्तेमाल कर रहे थे। मैं किस तरह नाक पर कपड़ा रख-रख कर खाना बनाती थी। उस पर आसपास का सन्नाटा और यह चिपचिपी बल्लियाँ जहाँ ज़्यादातर मिट्टी के घर थे। सबके पास ही गाय-भैंस खड़ी होती थी। उनका मल-मूल वहीं चारों तरफ़ फैला रहता था। जब हवा चलती तुरंत सारे में बदबू फैल जाती। मेरा वहाँ रहना बड़ा ही मुश्किल लग रहा था। वहाँ था ही क्या सिवाए गंदगी के। 

एक दिन तेज बारिश होने लगी। आसपास पड़े कूड़े के ढेर पानी के दबाव से फैलने लगे। मिट्टी की कच्ची जमीन कीचड़ में बदली गई। सब अपने छप्पर को संभालने के लिए बारिश में ही बाहर आ गए। मैं तो बहुत घबरा गई थी। अंदर रखे सामान को समेटने लगी। मेरे पति बाहर भागे और एक डंडे से गीली मिट्टी को कुरेद-कुरेद कर नालियाँ बनाने लगे ताकि पानी घर में न आए। बाहर बड़ा कीचड़ और गंदा माहौल बन गया था। हवा के साथ-साथ अजीब सी बदबू आ रही थी पर मैंने भी हिम्मत नहीं हारी और मुँंह पर कपड़ा लगा कर घर के आगे लगे कूड़े के ढेर को आगे सरका कर सींक की झाड़ू से झाड़ू लगाती रही। बड़ी मेहनत की है हमने अपना घर बनाने में। मिट्टी के तेल का इस्तेमाल न करने वाली को, न जाने किस-किस स्मैल का सामना करना पड़ रहा था। 

काफी दिन तक तो हमारी कयामत ही रही। कई साल तक खिचड़ीपुर की यही तस्वीर रही। आसपास पड़ा कूड़ा, गंदी कीचड़, पानी से भरे गड्ढे सूखे नहीं। लगातार उन्हें झेलना पड़ा पर फिर धीरे-धीरे घर बनते गए। काॅलोनी बसती गई और आज खिचड़ीपुर पूरी तरह बदल गया। आज तो आठ नंबर पार्क में पेड़-पौधों, फूलों की महक उड़ कर सात नंबर में फैल जाती है। आज कूड़ा आसपास फैला नहीं होता। जगह-जगह कूड़ा घर है। मिट्टी की जगह पक्की सड़क है। चारों तरफ़ हरे-भरे पेड़-पौधे है। अब तो सिर्फ़ बदबू तभी आती है जब घरों से कूड़ा उठाने वाली गाड़ी निकलती है या कूड़ेदानों की सफ़ाई होती है। लेकिन खिचड़ीपुर से बाहर जाते ही गाजीपुर की कूड़ा पहाड़ी से भी, ज़्यादा बारिश होने पर आते-जाते लोगों को कूड़े की जहरीली, कड़वी बदबू का सामना करना पड़ता है और एन एच 24 के थोड़ा सा पहले नाली नही है। वह एक तरह का बड़ा नाला है जहाँ से नमकीन गंध आती है, जो सांसों में घुल सी जाती है। उससे और पहले आठ नंबर का घोबीघाट है जहाँ से भी गंदे कैमिकलों की गंद आती है। पर फिर भी आज कालोनियों में साफ-सफाई का एकदम अच्छा वातावरण है जहाँ अब तो ढाबे, हलवाइयों के खाने की खुशबू आती है।

जुगराम 

गली में सांस भरकर बैठना जैसे किसी झील में डूबे थर्माकोल के डिब्बे की तरह है, जो न तो तैर सकता है, न ही डूब सकता है। यहाँ अंदर बाहर कुछ मालूम नहीं पड़ता। जुगराम अपनी चारपाई नाले के पास बिछाए नाले में बहते काले पानी को देख रहे हैं। उन्होंने कहा मैं पच्चीस साल से यहाँ हूँ, जब अम्मा ने गाँव से कमाने के लिए शहर भेज दिया। अठारह साल की उम्र में मेरा सिलसिला शुरू हुआ और मैं चाचा जी के साथ बुलंदशहर से यहाँ खिचड़ीपुर कालोनी में काम करने आ गया। 

एक रात चाचा जी के दोस्त के यहाँ, 6 नंबर में रूका तो रात में आसपास में कुछ उथल-पुथल मौजूद नहीं थी। उदास मन से एक थैले में कपड़े, जेब में गाँव का पता लिए जैसे हर आदमी आता है, मैं भी आया। उस रात गली में खाट पर लेटा मैं आसमान को घूरता, एक ठंडक सी जान पड़ती चेहरे पर हाथ फिरा कर, उसे अपनी हथेलियों पर मल लेता। रात मच्छरों ने बहुत काटा। यूँ लगा जैसे एक्यूपंचर हो रहा है। अपनी ही सांसें काबू में नहीं आ रही थी। चाचा को बताने की कोशिश की तो उन्होंने बहुत ज़ोर की डाँट लगाई। फिर झुंझला कर कहा दम घुट रहा है तो वापस गाँव जा। गोबर की बू अच्छी लगती है। पैसा कमाना है तो यहीं जीना होगा। वो ख़ुद ही मुझे सवाल का उत्तर दे बैठे। तब मुझे लग गया कि एक दिन मैं किसी बीमारी का शिकार जरूर हो जाऊँगा। ये दिल्ली बड़ी अजीब है चर्चा में तो बहुत आती है मगर समझ में नहीं आती। 

मैं अपनी ज़ुबान से कुछ कहता कि चाचा ने चादर मुँह पर डाली और बोले, सो जा सुबह घुमाऊँगा तुझे। सुबह पहले जाग कर अपने बिस्तर को समेटा और खाट खड़ी की। चाचा स्टोव में चाय बना रहे थे। मैंने उनसे पूछा जंगल कहाँ जाऊँ! उन्होंने कहा, नाले पर जा। उस समय कुछ समझ नहीं आया। चाचा फिर बोले अबे गधे सामने पहाड़ी है वहीं पर नाला है, जा चला जा! 

उनकी आवाज़ ने मुझे जैसे उस तरफ़ धकेल दिया जिस और लकड़ी की पट्टियों से बनी झुग्गी के पीछे एक बहुत बड़ा नाला बहता नज़र आया। उसके किनारे कागज़, पन्नियाँ, गत्ते, फटे कपड़ों के ढेर थे और गीली काले रंग की मिट्टी जिसके पास खड़े होने से ही उल्टी आने लगती। छोटी-छोटी झुग्गियों में बस एक ही चैखट की जगह और कोई निकास नहीं। कुछ समझ नहीं आ रहा था भाई आख़िर ये कौन सा शहर है। कुछ देर के लिए लगा कि मैं ही अकेला हूँ पर दूसरे ही पल वहाँ झुग्गियों से निकलते लोग नाले के किनारे घूमते नज़र आ रहे थे। 

छह बजे का हल्का उजाला और ये काला गहरा पानी जैसे इंजन में लगे ग्रीस की महक चारों ओर हवा में बास कर रही है। एक व्यक्ति तो मुँह में नीम की दातून चबा कर वहाँ थूक रहा था। जैसे ही हवा का झोंका आता, हवा छन कर मेरे शरीर में घुस जाती। मैं चेहरे को हथेली से सहला कर धंसी हुई खुशबू को पकड़ने की कोशिश करता मगर यहाँ नाले के पानी की बू माथे पर सिलवटें ला देती। 

एक झुग्गी पर बंधी रस्सी पर रात के सुखाए कपड़ों को हवा हर दो मिनट में हिला जाती। पहाड़ी पर हवा का अपना एक रूख है। सुबह की हवा में दुकान के शटर उठाने जैसा आनंद है। दोपहर को पसीना सुखाने की ताक़त होती थी, ये सुना था पर अब तक जो मैंने सुना देखा बस उसी के आधार पर मेरा दिमाग़ चल रहा था। जितने दिन मैं यहाँ रहा अब तक की खुशमिजाज़ वाली हवा बस रात नौ बजे की ही लगी। अब मुझे धीरे-धीरे यह महसूस होने लगा कि दिल्ली वालों को यहाँ बहुत जूझना पड़ता होगा। ये नाला जो यमुना में जा रहा है इसमें सफ़ाई का नामोनिशान ही नहीं है। इसका खामियाज़ा तो शहर में रहने वालों को भुगतना ही पड़ता होगा। 

प्रेमचंद 

रीतू

प्रेमचंद जी अक्सर ही दिल्ली में घूमा करते हैं। जब उनके घर मीट बनता है तो उन्हें मुर्गा मंडी जैसी जगहों पर जाना पड़ता है क्योंकि पहले उनका घर मुर्गा मंडी के पास ही पड़ता था। जब वह मुर्गा मंडी में घुसते है तो उन्हें बहुत दिक्क़त महसूस होती है। वह अक्सर ही अपने व्हाइट गमछे का कपड़ा मुँह पर लगा लेते है क्योंकि वहाँ हर जगह का कूड़ा जमा होता है जिन पर काफ़ी मक्खियाँ भिनभिनाती है। गंदे मच्छर होते है। जब भी कोई कूड़े की तरफ़ कदम रखता है तो वह एकदम उड़ जाती हैं। प्रेमचंद जी अपना पजामा ऊपर करके वहाँ से गुजरते है। अब तो फिर भी उनका वहाँ जाना कुछ कम हो गया है लेकिन वह बताते है कि जब वह दस-ग्यारह साल के थे तो उन्हें मुर्गी पालने का शौक था। वह किसी न किसी बहाने मुर्गा मंडी जाते थे लेकिन कभी भी उन्हें मुर्गा कटने की गंध सहने की आदत नहीं हुई। आज भी उन्हें वहाँ से उतनी ही गंध आती है क्योंकि वह गाजीपुर की तरफ़ से घर आ रहे होते है। वो कहते है कि काम पर तो मुझे मुर्गा मंडी की गंध रहनी पड़ती है और वापसी में इस कूड़ा पहाड़ी की। पहले तो कूड़ा पहाड़ी फिर भी छोटी थी पर अब कूड़ा बढ़ गया। अक्सर ही हवा के साथ उसकी सड़ी बदबू हवा के साथ पूरे में फैल जाती है। बारिश आने पर तो बुरा हाल हो जाता है। 

उन्होंने कहा जब वह दस साल के थे तब अक्सर अपने दादा के साथ मुर्दाघाट जाया करते थे। वहाँ भी उन्हें कभी-कभी घिन चढ़ती थी। वहाँ पर अजीब सी मिट्टी, राख उड़कर उनकी नाक में घुसती थी। धूप होने पर वह नीम के पेड़ के नीचे बैठ जाते थे, जो वहीं लगा हुआ था। उन्हें नीम के पत्तों की महक आती थी। वहाँ बैठना उन्हें अच्छा लगता था क्योंकि नीम की निंबोलियो से वह कंचे खेलते थे। 

जब से उन्होंने होश संभाला है उन्हें बाग बगीचे जैसी जगहों पर जाना पसंद है। आज वे सत्तर वर्ष के हैं पर फिर भी उन्हें फूलों वाली जगह पसंद है। वह कई ऐसी जगहों पर गए भी है जैसे कालिंदी कुंज, 

राष्ट्रपति भवन, मुगल गार्डन आदि। ऐसी जगह में उन्हें बड़ा आनंद आता है। 

पहाड़ी खिचड़ीपुर बीस साल पहले और अब 

वैसे तो मैंने अपने पड़ोस के लोगों के मुँह से पहाड़ी के बारे में बहुत कुछ सुना है कि पहाड़ी के लोग अलग-अलग गाँव से आए है जैसे गढ़वाली, यू.पी., बिहार, मुस्लिम आदि। लेकिन अब पहाड़ी की इतनी जानकारी मेरे लिए काफी नहीं थी। मेरे मन में पहाड़ी को लेकर बहुत से सवाल उठ रहे थे। जैसे इसे पहाड़ी क्यों कहते हैं। यह हमारी जमीन से इतनी ऊँची क्यों है? बीस साल पहले ये कैसी होगी? ऐसे कई सवाल जो अचानक से मेरे मन में आते। जब तक मुझे मेरे सवाल का जवाब नहीं मिल जाता तब तक वो मेरे मन में चुभन रहता है। इन सवालों के जवाब ढूंढ़ते हुए अपने पड़ोस में रहने वाली एक बूढ़ी अम्मा के पास गयी। वो यहाँ तीस सालों से रह रही हैं। मैंने अपने सारे सवाल एक-एक करके उनके सामने रखे और उनसे तीस साल पहले के बारे में पूछा। 

उन्होंने मेरे सवालों का जवाब देना शुरू किया। उन्होंने कहा जब मेरी शादी हुई थी तब इंदिरा गाँधी की सरकार थी। उसी की बदौलत मैं यहाँ आयी। मैंने कहा मतलब! वो बोली ये घर हमें इंदिरा गाँधी ने दिलवाया था। इंदिरा गाँधी ने पहले यहाँ पच्चीस-पच्चीस गज के प्लाट कटवाए और ग़रीब लोगों को दिए जैसे मुझे मिला। उसी तरह और भी बहुत से लोगों को मिला। लोगों ने अपने रिश्तेदारों को भी यहाँ बुला लिया और पहाड़ी पर बसा दिया। कुछ लोग यहाँ से अपना घर बेच कर पहाड़ी पर रहने लगे। धीरे-धीरे लोगों ने अपने घर का कूड़ा कबाड़ा यहाँ फेंकना शुरू कर दिया। बरसात में जब पानी 

और कूड़ा मिलकर जो कीचड़ बनाते उसमें से एक अजीब सी बू निकलती, जो अच्छे खासे माहौल को बदबूदार बना कर ही जाती। पक्के घर न होने के कारण ऐसा लगता कि वो हमारे खाने में मिल रही है। ऐसा सोच-सोच कर मुझे तो बहुत उल्टी सी आती थी। जब तक मैं खाना नहीं खाती थी तब तक बदबू आना बंद नहीं हो जाती। 

धीरे-धीरे वहाँ कूड़े का एक पहाड़ बन गया जो हमारी जीम ने काफ़ी ऊँचा हो गया। जिसका भी घर बनता वह अपने घर से निकलने वाला मलबा वहीं फेंकवा देता। मलबे से धूल उड़ती और हवा में मिल कर धूल वाला माहौल कर देती। कुछ लोग गाँव से यहाँ नौकरी करने आए तो उन्हें रहने के लिए जगह नहीं मिली, किसी के पास इतना पैसा नहीं था कि वो किराये पर रह सके। उन्होंने यहाँ पर अपनी झुग्गी बना ली। लोगों की देखा-देखी कुछ और लोगों ने यहाँ अपनी-अपनी झुग्गी बना ली। धीरे-धीरे लोग यहाँ बसने लगे। तब से इसका नाम पहाड़ी पड़ गया। लोग इसे पहाड़ी के नाम से जानने लगे। जैसे तैसे उन्होंने अपने रहने के लिए जगह तो बना ली लेकिन सुबह शौच के लिए कहाँ जाए इस बात से परेशान होकर उन्होंने एमसीडी को अपनी तकलीफ़ बताते हुए शौचालय बनवाने की फरमाइश रखी। पूरी झुग्गियों के लिए एक सुलभ शौचालय बनवा भी लिया। जब बारिश आती तो सारे माहौल को बदबूदार बना कर सारी और फैल जाती। जब तक धूप नहीं निकलती तब तक बदबू नही जाती। शौचालय से निकलने वाला पानी गटर में जाता। बारिश में वह गटर भरने से उसका पानी हमारी गलियों में आ जाता। नाली भी पूरी भर जाती और हमारे घर के अंदर भी आ जात। मुझे कीचड़ से नफ़रत है, ऊपर से ये पानी बह कर सबके घरों के अंदर चला जाता है। लोगों ने इसका इंतज़ाम किया, उन्होंने शौचालय के गटर को नाले में खुलवा दिया जो पहाड़ी के बराबर में ही है और पीछे से आता है। लोगों ने उस नाली की तरफ़ अपनी खिड़कियाँ खुलवा रखी है। बदबू से बचने के लिए खाली जगह पर पेड़ लगाए ताकि उनमें से खुशबू आए जिससे नाले की बदबू पर कंट्रोल कर सके। जब शौचालय का पानी नाली में छोड़ा गया तो वहाँ रहने वाले लोगों को अनेक तरह की बीमारियाँ लग गई। शुरूआत में तो लोगों के सिर में दर्द हुआ। धीरे-धीरे लोगों को हैजा, पेट दर्द, बुखार, खांसी जैसी बीमारियाँ होने लगी। 

अब तो दोनों तरफ़ झुग्गियाँ बन गई है। जब हवा चलती है तो बदबू को निकलने की जगह ही नहीं मिलती। वहीं घरों से टकरा कर रूक जाती है। फिर लोगों ने अपने घर से पानी निकालने के लिए छोटी-छोटी नालियाँ बनाई जिसमें उनके बच्चे भी शौच करने लगे। उसमें से एक सड़ी सी बदबू आने लगी। नाले और छोटी-छोटी नालियों की बदबू हवा चलने पर एक साथ मिल जाती तो उसका पहाड़ बन जाता तब लोगों ने अपने बच्चों को शौचालय भेजना शुरू किया। नेताओं से सड़क बनवाने के लिए कहा क्योंकि वहाँ पर कीचड़ और फिसलन हो जाती थी। 

अब बीस साल बाद लोगों ने अपने घरों में नल लगवा लिए जहाँ जिसको जगह मिली वहीं से पानी के पाइप निकलवा लिए। किसी-किसी ने तो नाले के किनारे पर ही पाइप लगवा रखे हैं। वो भी क्या 

करे उनके पास जगह ही नहीं है। कई बार जब पाइप पर वजन पड़ने पर पाइप टूट जाता है तो वहाँ पर गड्ढा बन जाता है। उसमें से बदबू आने लगती है। अब लोगों ने पक्की झुग्गी बना ली है। तिरपाल की बहुत कम झुग्गियाँ है। नाले की तरफ़ जो खाली जगह थी वहाँ पर लोगों ने टायलेट बनवा लिए। कुछ ने गाँव से अपने रिश्तेदारों को बुलाकर झुग्गियाँ डलवा दी है।

मोहल्ला सभा 

काव्या (प्रीति)

अरे भइया याद है वो बरसात के दिन घुटने-घुटने तक पानी भर जाता था गलियों में और सबके घरों में घुस जाता था। हमारा तो घर का सारा सामान बरसात में बर्बाद हो जाता था, कहते हुए रामनरेश ने एक और घूंट में चाय का कप पूरा ख़ाली किया। मुट्ठी भर नमकीन हाथ में भरते हुए फिर से अपनी बात शुरू की। हाँ तो क्या बता रहा था मैं…। अरे हाँ… एक बार तो बरसात में हमारा बक्सा में पानी भर गया था। बक्सा पलंग के नीचे ही रखता था। जब घर में पानी भरा तो बक्सा भी डूब गया। उस बक्से में में हमारे सारे कागज़ पत्र और बिटिया का जन्मपत्री सब कुछ भीग गया था। कपड़े जो खराब हुए सो तो अलग बात है और वो गंदी सड़े पानी की बास बर्दाशत से बाहर थी। 

हम्म-हम्म्… अपना सिर ऊपर नीचे हिलाते हुए कालीशंकर ने भी हामी भरी। नमकीन चबाते हुए बोले अरे भाई क्या बात याद दिला दी। वो भी कोई ज़िंदगी थी भला। एक तो यह कैंप इतना धंसा हुआ था कि खिचड़ीपुर गाँव से लेकर और मंगल बाज़ार रोड तक का गंदा पानी हमारे ही कैंप में आकर ठहर पाता था और तो और वो गाँव में सुलभ शौचालय था उसका भी सारा गंद हमारे ही घरों में घुस जाता था। 

गुप्ता जी क्या बातें चल रही है कहते हुए शर्मा जी ने अपना स्थान ग्रहण किया। कुछ नहीं बस पुरानी यादें ताज़ा कर रहे हैं, कहते हुए गुप्ता जी ने नमकीन वाली प्लेट शर्मा जी की तरफ़ बढ़ा दी। बातों में शामिल होते हुए शर्मा जी बोले तब के समय में और आज के समय में बहुत फ़र्क़ आ गया है तब तो घर को लंबाई भी इंसानों के बराबर ही थी। हाथ बढ़ाकर छत छू लो लेकिन शुक्र है एमसीडी वालों को बीस सालों में सही लेकिन हम ग़रीबों पर ध्यान तो दिया। तीन-तीन बार भराई की गई है इस कैंप की तब जाकर इतना ऊँचा हो पाया है। अब तो मंगल बाजार रोड के बराबर हो गया है। हमें न बताओ शर्मा जी हम भी यहीं के रहने वाले है, कहते हुए रामनरेश ने बीच में ही बोलना शुरू कर दिया। हमें पता है कितनी भराई की गई है। भराई तो सिर्फ़ गलिपन में की गई थी, हमारे घर तो और धंस गए थे उनका क्या। ऊपर से महीने-महीने भर खुदाई-भराई का काम चलता था। एक तो घर से लेकर बाहर तक धूल-मिट्टी अटी रहती थी। पूरा दिन खांसते-खांसते जान निकल जाती थी। ऊपर से एमसीडी वालों के नखरे और झेलने पड़ते थे। 

कुछ भी हो कम से कम उस सड़ी नाली से छुटकारा तो मिला है। आज तो सीवर और पानी की भी सुविधा घर-घर हो गई है नहीं तो शौच के लिए खिचड़ीपुर गाँव के शौचालय में जाना पड़ता था, दो-दो रुपए देकर। हम तो वहीं नहा भी लेते थे, कहते हुए गुप्ता जी ने एक ज़ोरदार ठहाका लगाया। उनके ठहाकों के साथ रामनरेश और शर्मा जी की हँसी भी शामिल होने लगी। 

पापा चाय कहते हुए वृंदा ट्रे में तीन कप चाय और टेबल पर नमकीन रख कर अंदर चली गई। 

अरे भइया क्या बात कही शौचालय में नहाना, रामनरेश ने एक कप अपनी तरफ़ सरकाते हुए कहा। हाँ, हाँ क्यों नहीं हम भी तो शौचालय में कपड़े ले जाते थे और वहीं नहाने की भी सुविधा थी, सो वहीं नहा लेते थे लेकिन नहाने के पाँच रुपए देने पड़ते थे। अब आपकी तरह हमारे घर में पानी का नल है, शर्मा जी ने जवाब दिया। 

अरे भइया रिसिया काहे रहे हो, हम तो यह सोच रहे हैं कि शौचालय में इतनी बदबू आती थी कि नाक नहीं दी जाती थी। अरे भाई बदबू तो आती ही थी मगर क्या करे न नहाओ तो शरीर से बदबू आती थी और पानी की भी तो समस्या थी, गुप्ता जी बीच में ही अपनी बात रखते हुए बोले। 

हाँ, ये बात तो है। चाय सुड़कते हुए शर्मा जी ने अपनी स्वीकृति दी। 

बदला तो है लेकिन समस्या खत्म नहीं हुई है भइया, रामनरेश ने भी अपनी बात कही। अब बेशक नाली बंद होने से गली चैड़ी हो गई है लेकिन अब मकान बड़े होने से न, गली घुट गई है। एक के घर में छोंका लगे तो गली भर की नाक जलने लगती है। उस केदार के घर में मिर्ची भूनी जाती थी तब पूरी गली में धुंआ भरने लगा। खांस-खांस कर तो मेरे नाक, कान सब लाल हो गए थे। और तो और घुटन के मारे दम निकला जा रहा था। सुबह से शाम तक बुरा हाल रहा। मुंशी जी की तो चुटिया से भी धुंआ निकल रहा था, कहते हुए रामनरेश ने वो ठहाका छोड़ा कि पूरी गली में गंूजने लगा। हँसते-हँसते शर्मा जी की चाय खुद पर गिरते-गिरते बची। 

अरे भईया सही कहा छत पर चढ़ो तो गाजीपुर वाला जो खत्ता है उसकी बास से नाक भर जाती है। नाली की कमी वो खत्ते की बदबू पूरी कर देती है, गुप्ता जी ने कहा। 

इन बदबुओं से कभी हमारा पीछा नहीं छूट सकता। शर्मा जी ने अफसोस जताते हुए सिर हिलाया ।