Houses Without Windows

खिड़की
नंदनी
बाहर की हवा बाहर रह जाती है और अंदर की अंदर। ये घर नहीं आग की भट्टी है। लड़की अगर बाहर घूमे तो लोग बातें बनाते हैं, अंदर रहे तो गर्मी में तपती रहती है। यही सब कहती हुई मम्मी सिर पकड़ कर चारपाई पर बैठ गई। खिड़की होती तो ठंडी हवाएँ आती और अंदर की भभक बाहर निकल जाती। कितना अच्छा लगता पर यह सब हमारे नसीब में कहाँ।
मैंने मम्मी-पापा की शक्लें देखी और बाहर निकल आई। नाले के पास की पटरी पर जाकर खड़ी होकर दूर क्षितिज देखने लगी। अपने आपको खुला महसूस करने लगी। अगर खिड़की होती तो घर, घर जैसा लगता। घर में सूरज का बसेरा होता है, उजाला रहता है। ठंडी हवाएँ आती-जाती। पड़ोसियों के घर में बनते स्वादिष्ट खाने की सुगंध घर में बैठे-बैठे आ जाती। दूसरे के घर की लड़ाई खिड़की पर खड़े-खड़े देखी जा सकती। हमें तो पता भी नहीं है कि खिड़की होने के और कितने मजे हैं!
रात
नंदिनी
आज तो बत्ती ने हद ही कर दी है कल रात से ही नहीं आई है। रातभर करवटें बदलती रही। पसीने में तर होती रही। चार कोनों का यहघर चारों तरफ़ से ढका है। पसीने की गंध सिर चढ़ कर परेशान कर रही है।
हमारे घर के पीछे भी घर सीधे और उल्टे हाथ पर भी घर, हर तरफ़ घर ही घर है। खिड़की लगे तो कहाँ! बाहर आकर ही हवा लेनी होती है, खिड़की न होने की वजह से छौंक का धुआँ भी घर में ही फेरेलेताहै। ऐसा लगता है कि घर उसका मंडप है और धुआँ वर-वधू। मुझे बहुत गुस्सा आता है।
मम्मी मुँह-हाथ धोकर काम पर निकल चुकी थी। पापा के भी आने का समय लगभग हो गया था। मैं बाहर चारपाई पर लेटी थी। मैंने चारपाई उठाई और अंदर आ गई। वहभभक घर में अब भी थी।
रोज़ की ही तरह आज भी पापा पसीने में लथपथ हुए घर में घुसे। पलंग पर बैग रखा और बाहर आकर चारपाई बिछाई और सिर पकड़ कर बैठ गए। मैं पानी का गिलास लेकर बाहर आई और बोली, क्या हुआ?अंदर से बाहर क्यों आ गए? पापा के मुँह से आज भी वही डायलाग निकला, अंदर गर्मी है, दम घुटेगा। मैं बाहर ही बैठा हूँ तुम चाय बना कर लाओ। मैंने पापा से कहा, बाहर भी तो गर्मी है। पापा ने कहा, बाहर की गर्मी झेल सकता हूँ पर अंदर की भभक नहीं।
पापा ने मुझे चाय बनाने के लिए अंदर भेजा। मैंने चाय का पानी चढ़ाया और बाहर आकर खड़ी हो गई। कुछ ही देर में लू चलने लगी साथ ही गंध से भरी नाले की बदबू। मैं तुरंत घर के अंदर आकर चाय बनाने लगी। कुछ देर बाद बाहर जाकर देखा तो पापा बड़े मजे से लेटे हुए थे। उन्हें न तो बदबू की चिंता और न ही गर्म हवाओं की।
मैंने कप में चाय निकाली और पापा को देकर अंदर आकर लेट गई।
03
बेहोशी
कोमल
आज मैं सुबह बहुत लेट उठी। मैंने देखा कि सब काम पर लगे थे, कोई चाय बना रहा है तो कोई झाड़ू लगा रहा है। मैं बिस्तर से उठी। ब्रश किया और नहा-धोकर चाय पीने चली गई। मैंने कप उठाया और चाय पीते-पीते अपनी खिड़की के पास जाकर बैठ गई। वहाँ से बहुत अच्छी हवा आ रही थी। मैं बाहर का नज़ारा देखने लगी। मैंने अपनी बड़ी दीदी से पूछा, वहजो कोने का छोटा सा घर है जिसमें खिड़की नहीं है। उस घर में कौन-कौन रहता है? दीदी ने कहा,उसमें तो सिर्फ़ दो लोग ही रहते हैंएक छोटी लड़की और उसकी दादी। लेकिन क्यों पूछ रही है?
मैंने कहा, कुछ नहीं ऐसे ही। तब तक मेरी चाय भी खत्म हो गई तभी दीदी बोली, अच्छा महक, मैं टयूशन जा रही हूँ। दीदी के जाते ही मैं सोचने लगी कि खिड़की के बिना वहलड़की कैसे रह पाती होगी। जैसे मैं खिड़की पर बैठ कर चाय पीती हूँ वैसे ही उसका भी मन करता होगा। यही सोचते-सोचते मैं नीचे खेलने चली गई। जो बच्चे खेल रहे थे मैंने उनसे पूछा, क्या मैं भी तुम्हारे साथ खेल सकती हूँ? बच्चों ने कहा, हाँ, ज़रूर खेल सकती हो।
हम सब छुपन-छुपाई खेल रहे है तुम भी जाकर छुप जाओ। ठीक है, कहकर मैं उसी छोटे से घर के पीछे जाकर छुप गई। मैंने देखा कि उस घर से एक बूढ़ी अम्मा और एक छोटी सी लड़की बाहर आ रही थी, इतने में ही मैं वहाँ से अपने घर चली गई। मैं पूरे दिन उसी लड़की के बारे में सोच रही थी। फिर मैं घर जाकर सो गई।
सुबह उठी और अपनी खिड़की से बाहर देखने लगी। मैंने देखा कि एक जगह बहुत सारे लोग घेरा बना कर खड़े हैं। मैं खिड़की से ठीक से देख नहीं पाई इसलिए मैं भाग कर नीचे गई। मैंने देखा वो लड़की जिसके घर में खिड़की नहीं थी, वह अपनी अम्मा कीगोद में बेहोश पड़ी थी। उसकी अम्मा फूट-फूट कर रो रही थी। लोग अलग-अलग तरह की बातें बता रहे थे। कोई कह रहा था कि इसको जूता सूंघा दो ठीक हो जाएगा। कोई कह रहा था मुँह पर पानी के छींटे मारो।
मम्मी ने मुझसे कहा, महक जल्दी से एंबुलेंस को फ़ोन करो। मैंने जैसे ही फ़ोन उठाया तब तक मम्मी उन्हें ई-रिक्शा में बिठाकर अस्पताल ले गईं। कुछ देर बाद अस्पताल से वापस आए। मैंने मम्मी से पूछा कि वह ठीक है न!मम्मी ने कहा,हाँ बेटा वहबिल्कुल ठीक है।मैंने मम्मी से पूछा कि क्या हुआ था? उन्होंने कहा,कुछ नहीं बेटा, खाना बनाने से जो धुआँ हो जाता है वहबाहर नहीं निकल पाया था जिससे सांस नहीं ले पाईऔरबेहोश हो गई।
खिड़की
किसी भी मौसम में मेरे दोनों बच्चे घर में नहीं टिकते हैं। छुट्टी वाला दिन हो या स्कूल से आने के बाद, खाना खाकर बाहर ही चारपाई बिछाने को कहते हैं,सिर्फ़ बरसात के मौसम में ही बेमन से भीतर बैठतेहैंतब भी दरवाज़े का पर्दा हटा कर वहीं आकर ताका-झाँकी करते रहते हैं। बार-बार मुझसे यही सवाल करते रहते हैं कि अम्मा,तुमने दरवाजे पर पर्दा क्यों लगा रखा है। कितनी बार उन्हें समझाया कि खुले में घर का सब कुछ दिखाई देता है। कई बार जब मैं घर पर नहीं होती हूँ तब दोनों बच्चे पर्दा खींच-खींच कर ढीला कर देते हैं, जिससे पर्दा लटक जाता है। पूछने पर चुप हो जाते हैं औरबस यही कहते हैं,हमारे स्कूल के सब दोस्तों के घर में खिड़की है, हमारे घर में क्यों नहीं है। उनका मुझसे बार-बार यही सवाल करना मेरे दिमाग़ को कचोट देता है।
मैं अपने आप में ही सोचती रहती हूँ कि घर में खिड़की कैसे लगेगी,घर के चारों तरफ़ की दीवारों में जगह नहीं है। अगल-बग़ल के ज़्यादातर घर एक-दूसरे से सटे हुए हैं। हमारे घर के पीछे की दीवार नाले की तरफ़ है यदि उधर की तरफ़ खिड़की निकाल भी ले तो नाले के पानी की बदबू घर के अंदर आ जाएगी। घर के दरवाज़े के साथ भी खिड़की नहीं बन सकती क्योंकि दरवाज़े वाली दीवार में खिड़की लगाने की जगह ही नहीं है। रात को रोज़ दोनों बच्चे स्कूल में खिड़की के पास बैठने के किस्से सुनाते हैं। खिड़की के पास बैठने के लिए वेघर से सुबह जल्दी निकल जाते हैं।
एक बार उन्हें स्कूल पहुँचने में देर हो गई और बच्चे खिड़की के पास बैठ नहीं पाए। उनका तो मूड ख़राब रहा। मैंने उन्हें बहुत समझाया कि खिड़की के पास बैठने की बारी सबको आनी चाहिए लेकिन आज वह मुझे ही कह रहे थे,घर में आए मेहमानों की वजह से तुमने देर से स्कूल भेजा। घर में तो खिड़की लगवाते नहीं हो। उनकी बात सुन कर मैं सोचने लगी कि इन्हें मैं क्या समझाऊँ कि हमारे घर में खिड़की क्यों नहीं लग पाती है। कुछ बड़े होने पर ही इन्हें समझ आएगा।
होली के दिनों में चौखटपर खड़े होकर आते-जाते बच्चों पर रंग डालते हैं जिससे घर के अंदर तक रंग जाता है और घर का सारा सामान रंग से भर जाता है। इन दिनों में हमें बहुत परेशानी झेलनी पड़ती है। इन्हें मना करते हैंतो कहते हैं,घर में खिड़की क्यों नहीं लगवाते। खिड़की होती तो हम खिड़की से रंग फेंकते। सामान और घर गंदा नहीं होता।
आरूषि
खिड़की
एक छोटी झुग्गी में अकेली रहती हूँ। उसमें एक छोटा सा बेड और टीवी है। झुग्गी के दूसरी तरफ़ खिड़की है। मैं तो लोगों के घर जाकर झाड़ू-पोंछा करती हूँ तब अपना पेट भर पाती हूँ।
सर्दियों का समय था। मैं खिड़की के पास बैठी थी। लोगों की बातचीत सुनाई दे रही थी। मैं भी उनके पास चली गई। आधे घंटे बाद घर आकर खाना बनाने लगी तो देखा घर में कुछ नहीं था। तब मैं अपने पड़ोसी के पास गई और उनसे सौ रुपए माँगे। पैसे लेकर मैं सब्जियाँ लेने गई। सब्जियाँ लाकर खाना बनाने लगी। खिड़की से कुछ मिट्टी धूल के कण अंदर आ रहे थे जो खाने में गिर रहे थे। खिड़की से ठंडी हवा अंदर आ रही थी जिस कारण गैस बार-बार बुझ रहा था। आते-जाते लोग भी अंदर झाँक रहे थे। मैंने एक लंबे कपड़े को खिड़की पर रस्सी से बाँध कर लटका दिया और आराम से गैस जलाकर खाना बनाने लगी।
खाना बनाकर मैं रजाई ओढ़ कर सो गई पर मुझे नींद नहीं आ रही थी। लेटे-लेटे मैं सोच रही थी कि सुबह उठ कर मैं जल्दी काम पर जाऊँगी, यही सोचते-सोचते सुबह हो गई। मैंने उठ कर समय देखा तो दस बज रहे थे पर मुझे काम पर आठ बजे जाना था। मैंने जल्दी से अपने लिए खाना बना कर रखा और नहा का काम पर चली गई। आज मैं बहुत लेट हो गई थी, मेरी मालकिन ने मुझे डाँटते हुए कहा, मैंने तुझे आठ बजे आने को कहा था और तू इत्ती देरआ रही है। आगे से तू लेट आई तो काम से निकाल दूँगी। मैंने कहा, ठीक है मालकिन अब से लेट नहीं आऊँगी। वह बोलीं, अब खड़े-खड़े मुँह क्या देख रही है, काम पर लग जा।
मैं काम करने लगी। पहले मैंने झाड़ू लगाई फिर पोछा। मेरा काम खत्म हो गया। मैंने मालकिन से अपनी तनख्वाह ली। आज मैं बहुत खुश थी। मैं सोचने लगी कि आज मैं खाने में पनीर बनाऊँगी, उसके साथ बासमती चावल बनाऊँगी। घर जाकर देखा तो कुछ बच्चे खिड़की से घर के अन्दर पत्थर फेंक रहे थे। मैंने उन्हें डाँट कर भगा दिया। ताला खोला तो देखा कि बहुत सारे पत्थर घर के अंदर गिरे हुए थे। मैंने जल्दी से झाड़ू लगाई। मैंने सोचा ये बच्चे खिड़की से पत्थर कैसे फेंक रहे थे, खिड़की पर तो कपड़ा लगा रखा था फिर याद आया कि उन्होंने कपड़ा हटा कर पत्थर अंदर फेंके होंगे। ये सब बातें छोड़ कर मैं खाना बनाने लगी। गैस पर एक तरफ़ सब्जी पक रही थी और दूसरी तरफ़ चावल। टीवी एकदम खिड़की के पास रखा है और बेड उससे थोड़ा आगे। मैं आराम से टीवी देख रही थी। मैं टीवी देखने में बिजी थी, खाने पर ध्यान ही नहीं दिया। चावल जल गए थे, बहुत बदबू आ रही थी। मैंने जल्दी से गैस बंद किया और कुकर का ढक्कन हटाया। चावल इतने जल गए थे कि खाने लायक नहीं थे। खिड़की से जले हुए चावल की खुशबू बाहर तक जा रही थी। सब लोग भागते हुए मेरे घर आए और बोले, क्या हुआ! इतनी बदबू कहाँ से आ रही है? मैंने कहा, कुछ नहीं, थोड़े चावल जल गए हैं। आप सब जाओ, मैं संभाल लूँगी।
सब लोग वहाँ से चले गए। मैंने चावल के कुकर में पानी डाल दिया और धोने के लिए रख दिया। मैंने आटा गूंधकर रोटी बनाई और पनीर के साथ खाई।
दिन का समय था। मैं खिड़की के पास बैठ कर चिड़ियों की चहचहाहट सुनती रही। गाड़ियों के चलने की आवाज़ पेड़ों के पत्ते झड़ने की आवाज़ और सब लोगों के बात करने की आवाज़ सुन कर बहुत अच्छा लग रहा था। अचानक से मिट्टी आँख में आ गई। बहुत जलन मचने लगी। मैंने जल्दी से आँख में पानी डाला और देखा कि छोटे-छोटे दो-तीन कण आँख में गिर गए थे। मैं बाहर गई वहाँ पर बहुत सारे लोग बातें कर रहे थे। मैं सोचने लगी कि किसके पास जाऊँ, किस से कहूँ!एक कोने पर एक औरत चूल्हे पर रोटी सेंक रही थी।उसका उड़ता धुआँ दूसरों के घर की खिड़कियों से अंदर जा रहा है। मैंने उनसे पूछा क्या कर रही हो? उन्होंने कहा, क्या कर सकती हूँ रोटी बनाने के अलावा, चूल्हा पोतने के अलावा। अब मैं बूढ़ी हो चुकी हूँ जल्दी ही भगवान मुझे बुला लेंगे। मैंने कहा, ऐसी बात मत करो, मैं भी बूढ़ी और परेशान हूँ क्योंकि मेरे घर की खिड़की से बच्चे पत्थर अंदर फेंकते हैं जो खाने में गिर जाते है और लोग बार-बार झाँकते रहते हैं। औरतें मुझे देख कर हँसती हैं। मन करता है घर ही छोड़ कर चली जाऊँ,एक ऐसे घर में जहाँ खिड़की ही न हो। तब न तो कोई झाँकेगा, न ही धूल-मिट्टी अंदर आएगी। अपना आराम से रहो।
बूढ़ी अम्मा ने कहा, बात तो सही है। अपनी तनख्वाह से पैसे जोड़ कर अपना घर बनवा लो।
अम्मा, कह तो ठीक रही हो पर राशन-पानी का भी ख़र्चा है, पैसे कैसे बचेंगे।
अच्छा तो मैं एक तरीका बताती हूँ तुम खिड़की में एक छोटा सा गेट लगवा लो गर्मियाँ आएंगी तो बंद कर सकती हो और सर्दियों में धूप के लिए खिड़की खोल देना।
आपने बहुत अच्छी बात बताई अम्मा, अब मैं ऐसा ही करूँगी।
पछताना
रीतू
मेरी फ्रैंड खुशबू की मम्मी रोज़ ही हमारे घर के आगे से गुज़रती है,उन्होंने पहाड़ी पर कमरा तो किराए पर ले लियापर हमारे घर के आगे से उनका आना-जाना लगा रहता है। कभी दूध लेने के बहाने तो कभी सब्जी लेने के। शाम होते ही मम्मी रोड के किनारे खाट बिछा लेती है और खुशबू की मम्मी से आते-जाते राम दुआ हो ही जाती, तब वह घंटों हमारी खाट पर बैठी रहती।
एक बार तो वह मम्मी से कहने लगीं, हम तो पछता रहे हैं यहाँ से अपनी झुग्गी बेच कर, करते भी तो क्या! कर्ज़ा भी तो सिर पर था। मम्मी ने कहा, क्यों क्या हुआ! क्या वहजगह अच्छी नहीं है? खुशबू की मम्मी बोलीं, बहन यूँ तो जगह में कोई कमी नहीं है,जहाँ इंसान रहे मन तो वहीं लगता है और ऊपर से वह कमरा!मम्मी ने पूछा, क्या कमरे में कोई कमी है?
अरे बहन कमी ही कमी है। एक तो वह कमरा घरों के बिल्कुल बीचो-बीच है। दाये-बायें कोई भी गैप नहीं,और तो और नए कमरे में कोई खिड़की ही नहीं है। ऐसा लगता है जैसे अभी दम घुट जाएगा। मम्मी ने कहा, बाप रे बाप हमारे घर में तो गर्मी में हमारा दरवाज़ा, खिड़की न खुले तो आफत सी आ जाती है जबकि घर में दो-दो खिड़कियाँ हैं।
खुशबू की मम्मी ने कहा, मैंने तो इसी मारे गैस चूल्हा भी बाहर ही रख रखा है। जब कमरा लिया था तब गैस अंदर ही रखा था। उस समय गर्मी की शुरूआत थी तब घर इतना गर्म नहीं होता था।
माथे पर सिकन लाते हुए मम्मी बोली, बाप रे बाप तुम्हारी गर्मी कैसे कटती है जहाँ खिड़की का नामोनिशान भी न हो। हमारे घर में तो खिड़की, कूलर होते हुए भी बुरा हाल रहता है,तभी आंटी बोली, अरी बहन कूलर से याद आया कि मुझे कूलर के लिए मना करवाना है क्योंकि घर में इतना सामान हैकिवह बड़ा वाला कूलर घर में नहीं आयेगा।